हर पल मन बुनता रहता है
न जाने कितने ताने-बाने,
हर पल आंखें देखती रहती हैं
न जाने कितने सपने,
और हम सपनो के ताने -बाने में
रह जाते है कहीं उलझ कर...
फिर सोचती हूं
ये मन, ये सपने केवल अपने क्यूं नही होते
कभी इनमें किसी के लिए अहसास होते हैं
तो कभी ये किसी की सीमाओं में कैद होते हैं
क्यूं नहीं दूर क्षितिज की तरह
एक हो जाते ये धरती,आकाश की मानिंद...
क्यूं हम मन की चंचल लहरों में..
डूबते उतराते चले जाते हैं....
अपना ही मन न जाने क्यूं..
अपना नहीं रहता..
और हम रह जाते हैं बेबस से ...
अपने होके भी नही रह पाते अपने...
ये इतने सारे क्यूं ..
.क्यों है यही तलाश रही हूं अब तक..
कब तमाम क्यूं खो जायेंगे सोच रही हूं..
शायद तब जब मन और सपने एक साथ होंगे..
कब होगें साथ बस यही इंतजार है...........
कागज हो तो हर कोई बांच ले, बारिश हो तर हो जाए जिस्म,
जवाब देंहटाएंमन की बात मन ही जाने, कितनी सीमा में कैद हूं मैं, इसे आज उड़ने दो मन की बात अब कागज पर उतार दो, आपके सपने सच जरूर होंगे।
निलेश