शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

धमाके में जिंदगी
फिर धमाका हुआ  , अफरा-तफरी मची
लोगों की भीड़ जुटी, हल्ला मचा
सारे टीवी स्क्रिन ब्रेकिंग प्वाइंट से भर गए
लोग देखने, सुनने के लिए बेताब होगए
थोड़ी देर में घटना स्थल की तस्वीरें आगईं
और सभी की जुबान पर हाय..हाय के शब्द तैर गए.....
पर संवेदना कितनी थी ये तो पता नहीं
क्योंकि लोग एक पल ठहर कर चल पड़े आगे ....जैसे ट्रेन के छूटते ही प्लेटफार्म छूट जाता है....एक दिन पहले ट्रेन हादसे में जाने गईं ...मलबा हटा नहीं और दूसरी जगह धमाके में ढ़ेर हो गए लोग।
हिन्दी फिल्मों की तरह ही सब खत्म होने के बाद पहुंची पुलिस
कुछ नेताओं नें घटना स्थल का दौरा करके जिम्मेदारी निभाई 
 और सुरक्षा पर कसीदे भी कढ़े...
और पुलिस जांच में जुटी कह कर हादसे की कहानी समाप्त...
ये है हिंदुस्तान जिसे फिरंगियों से छुड़ाने के लिए
लोगों नें अपनी जाने दी..वो जिंदा होते तो जरूर शर्माते,
अब तो देश को लूटने और बरबाद करने वालों की फौज तैयार है
इसीलिए संवेदना भी किराए की हो गई है...
हर दिन हादसे होते हैं, लोग मरते हैं,
कभी नक्सलवादी, कभी आतंकवादी
कभी भ्रस्टाचार के खिलाफ अनशन में तो,
कभी लापरवाही की भेंट चढ़ रहे हैं लोग..
होना कुछ नहीं है, वही ढाक के तीन पात...
लोग खुद आदि हो चुके हैं जंगलराज के
उन्हें मालूम है ये भारत है यहां
ना न्याय मिलना है ना सजा,
क्योंकि गरीब लोग ही मरते हैं
जब तक कसाब जैसे लोग देश में पलेंगें
तो उनके जन्मदिन में धमाके के केट कटेंगे ही
न्याय तो तब मिलेगा जब कोई
कोई कद्दावर आहत होगा ...
उसकी भी गारंटी नहीं है...
न्याय मिलेगा या जेल में पलेगा ?

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

ये कैसा प्यार ?

                                                                                                          
कुछ बातों पर यकीन करना चाहूं तो भी नहीं कर पाती...कुछ लोगों के बदलाव को देखूं तो भी यकीन नहीं होता...सोचती हूं क्या वाकई दुनिया बदल गई...क्या रिश्तों के मायने अब नया रूप अख्तियार कर चुके हैं...अब तक बॉलीवुड और टीवी सीरियल में इस तरह की स्टोरी देखकर लगता था कि क्या ऐसा दुनिया में होता होगा...फिर सोचा ग्लैमरस लाइफ के लिए ये बात मायने नहीं रखती लोग कपड़ों की तरह रिश्ते बदलते है...और टीवी सीरियल में तो लोगों के मनोरंजन या टीआरपी के चक्कर में काल्पनिक तौर पर बनाया जाता होगा ...पर अब तो अपने आस-पास के लोगों को देखकर लगता है कि वाकई फिल्म वालों को भी स्टोरी हमारे बीच के लोग ही देतें हैं...आज 'प्यार' शब्द पर ही बात कर लें क्योंकि सारे रिश्ते और शब्दों पर बात करें तो उलझ सी जायेंगी...'प्यार' ये शब्द सुनते ही मन एक सुंदर सी भावना के आसपास घूमने लगता है...जिसमें त्याग, समर्पण, ईमानदारी जैसे भावों का समावेश हुआ करता था...प्यार का नाम सुनते ही याद आते थे वो कुछ लोग जो जाति-धर्म,ऊंच-नीच,अमीरी-गरीबी से परे एक दूसरे की परवाह के लिए अपनी जान तक दे चुके हैं...शायद सब जानते हैं हीर-रांझा,शीरी-फरहाद,लैला-मजनू को...पर आज के प्रेमी शायद इनकों बेवकूफ कहें तो चौंकियेगा मत...क्योंकि अब तो लोग प्यार को जीत-हार और जिंदगी के लिए सुख बटोरने का माध्यम बना चुके हैं,हीर ना मिली तो क्या दुनिया में हीर की कमी है ,रांझा न मिला तो क्या.. अरे उससे अच्छा रांझा भी आस-पास ही मिल जाएगा...रही बात कसमे-वादे की जो साथ निभाने के लिए हर प्रेमी एक दूसरे से करते हैं..साथ में सारी हदे फिर वो चाहे मन की हो या तन की पार करने के बाद भी उसे सामान्य करार देकर आगे निकल पड़ते हैं... जैसे वो किसी नाटक के संवाद से ज्यादा कुछ भी नहीं था..जो एक नाटक खत्म होने के साथ ही खत्म हो जाता है....और जिंदगी में नए प्रेमी-प्रेमिका के बदलते ही बदल जाता हैं...इतना तो फिर भी ठीक है साहब पर आज तो एक साथ कई लोगों से प्यार निभाते देखा जाता है और फिर जो बेहतर मिलता है अपनी जरूरतों के हिसाब से उसे बड़े नाटकीय अंदाज में जीवन साथी भी चुन लिय़ा जाता है...तमाम पाकिजगी और आंखों में शर्मों हया की दुहाई के साथ...और ना तो प्रेमी को फर्क पड़ता है धोखा देने का ना ही प्रेमिका को फर्क पड़ता नए के साथ हो लेने का...क्या कहिएगा इसे बॉलीबुड की फिल्मी स्टोरी..जी नहीं ये हकीकत है आज के समय की.. जिसकी झलक अब छोटे-बड़े शहरों में आसानी से देखी जा सकती है...आज के समय में रिश्तोंकी गरिमा,गंभीरता,ईमानदारी,संघर्ष की बात करिए तो जो युवा आपके पास होंगे वो जरूर आपको पुराने जमाने का कह कर आपको आउटडेटेड कहने से नहीं चूकेंगे...और आपको खुद शर्म आएगी अपनी सादगी और ईमानदारी पर....और मुश्किल तो यही है कि सुख की परिभाषा भी इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती देख पाएंगे आप..मेरी सोच में तो ये प्यार नहीं आप क्या सोचते हैं इस बारे में.....ये बदलाव कहां ले जाएगा दुनिया को....रिश्तों कों...या अब यही पहचान होगी रिश्तों की जिससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा...झूठ ,फरेब,चापलूसी.धोखा,जीत हार का गणित,भ्रस्ट आचरण,छल-कपट ही शायद इस युग की पहचान मानी जायेगी..क्योंकि हर युग की अपनी विशेषता होती है ,लोगों के जीवन मूल्य,नैतिक मूल्य होते हैं..तो यही समझें कि वाकई कलयुग नें अपना असर  दिखाना शुरू कर दिया है....

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

कायाकल्प

कायाकल्प के साथ ही जुड़ा है कुछ नएपन का अहसास इसीलिए शायद छोटा सा भी बदलाव हमें अच्छा लगता है फिर वो किसी भौतिक चीजों का हो या इंसान का....मैंने भी कायाकल्प किया है अपने ब्लॉग का.. सुंदर हरियाली और पेड़-पौधों से घिरे जंगल के बीच रखकर बहुत ही अच्छा लगा...कितने दिनों से मैनें अपने ब्लॉग में कुछ नहीं लिखा...जैसे दुनिया ने मुझसे वक्त छीन लिया हो...या कहूं वक्त होते हुए भी अपने विचारों की उलझन में इतनी खो सी गई हूं लगता है सबसे दूर हो गई...शायद मुझे भी जरूरत है कायाकल्प की या कहूं अब मेरा भी कायाकल्प हो गया है ..कुछ बदला सा महसूस करके सोचती हूं कि ऐसा क्यों हो गया...सोचती पहले भी थी पर उस सोच में संवेदना हावी हो जाती थी.....पर अब लगता है जैसे सारे रिश्तों की कलई उधड़ चुकी है सबका असली चेहरा दिखाई देता है.. तो वितृष्णा होने लगती है फिर सवाल और सवाल और सवाल में उलझ जाती हूं...काम का भी असर पड़ता है जिंदगी में...खबरों के बीच काम करके अब हर बात की सच्चाई दिखाई देती है लोगों के जीने का तरीका लोगों की सोच और तो और रिश्तों को पल-पल बदलते देखकर मैं अपने आपको उस बीच बहुत अकेला सा पाती हूं...आपस में जब किसी विषय पर लोगों से चर्चा होती है तो लोगों के बीच अक्सर कुछ शब्दों का ज्यादा प्रयोग होते देखती हूं तो मैं उनका अर्थ तलाशनें लगती हूं...लोग अक्सर कहते है डिप्लोमैटिक होना सीखिए...प्रेक्टिल बनिए...लाइफ को एंजॉय कीजिए...छोटी-छोटी उम्र में ही लोग कितने परिपक्व हो गए हैं सारी दुनियादारी आ गई है....पर मैं तो इन शब्दों का अर्थ जिंदगी में लगा नहीं पाती और सोचती हूं क्या डिप्लोमेटिक होने से ही सफलता मिलती है, क्या लोगों को अब बनावटी आवरण में लिपटी चीजें ही सुंदर लगती हैं....क्या भीतर से अच्छा होना अयोग्यता हो चुकी है...ये कैसा डिप्लोमैटिक होना हुआ...तभी तो खुशी भी डिप्लोमैटिक मिलती है तो लोग तनावग्रस्त हो जाते हैं...भई जो आप देंगे वही तो मिलेगा ना...सच्ची खुशी तो मन से आएगी और डिप्लोमैटिक होंगे तो मन कहां बचेगा...बात करें प्रेक्टिकल की मैं तो साहित्य की विद्यार्थी हूं मेरे लिए प्रेक्टिकल का मतलब कांच के जार में लैब में होने वाला प्रेक्टिकल...पर ना ना यहां तो अर्थ होता है रिश्तों में प्रेक्टिकल करना...अब बताइए ये कहां से सीखें दुनिया से,....मैट्रो सिटी से या बॉलीवुड से...जहां प्रेम सांसों की गति की रफ्तार से बदलता है ...आज एक से तो कल दूसरे से....मैं कुछ सोच पाऊं तब तक किसी तीसरे से...संवेदना लगाव की बात करें तो पता चलता है प्रेक्टिकल होने का अर्थ...अरे भई किसी के लिए इंसान जीना थोड़ी ही छोड़ता है प्रेक्टिकल बनिए ? पर मैने तो उन लोगों को देखा है, पढ़ा है जो समर्पण की पराकाष्ठा हैं जिन्होंने अपना जीवन मन की शांति के लिए और रिश्तों को निभाने में निकाल दिया...पर अब शायद शांति और खुशी के मायने ही बदल गए हैं ? तभी तो ये शब्द हल्ला मचा रहें हैं और हमारे जैसी सोच वाले लोग आउटडेटेड कहलाते हैं....बस इन्हीं बातों में उलझी मैं कुछ दिनों से मौन हो चुकी थी पर मुझे मालूम है कोई कितना भी डिप्लोमैटिक, प्रेक्टिकल हो या लाइफ को एक पल में एंनजॉय करने वाला हो उसे भी एक वक्त के बाद वही चाहिए जो सच है-सच्ची खुशी,ईमानदार साथी और तकलीफों में साथ देने वाला दोस्त...जो शायद उन्हें कभी नहीं मिल सकता।