बुधवार, 15 सितंबर 2010

ये कैसे डॉक्टर

 अंबिकापुर में एक महिला के पेट में ऑपरेशन के समय एक फीट लंबा कपड़ा छूट गया और तीन महीने के बाद उसे निकाला गया....खबर देख कर उस अंजान महिला के प्रति मेरा मन संवेदना से भर गया.. कि   उसने इन महीनों में कितनी तकलीफ सही होगी...प्रसव के बाद मां बनकर मातृत्व का सुख उठाने की जगह इतने महीने उसने केवल डॉक्टरों के दिए दर्द में ही काट दिए...इन सब बातों से भला उन डॉक्टरों को क्या लेना देना जिन्होंने ऑपरेशन के वक्त लापरवाही की...उन्हें तो मतलब है केवल अपनी फीस से.. यानि ऑपरेशन का पूरा पैसा ....उन्हें तकलीफ तो तब होती जब  फीस पूरी या फिर नहीं मिलती....फिर तो उनकी पांचों ही नहीं छटवीं इंद्री भी जागृत हो जाती...और इसके लिए शायद वो नवजात बच्चे को बंधक बना कर पैसे लाने को मां-बाप को मजबूर कर देते...पर यहां बात उनकी लापरवाही की है तो क्या लगता है इसके लिए उन्हें बंधक बनाया जाए और इस चूक के लिए  कैसे दंडित किया जाए...यही तो मुश्किल है कि डॉक्टरों को लापरवाही की सजा नहीं मिल पाती और वो एक के बाद एक इस तरह की गलती को अंजाम देते रहतें हैं....लगातार इस तरह की घटनाएं हम पढ़ते या देखते रहते हैं पर इन डॉक्टरों पर कार्यवाई की खबर एक बार भी हमें सुनने,पढ़ने को नहीं मिलती...क्या समझें इसे हम कि आम आदमी की जिंदगी इतनी सस्ती हो गई है कि कोई भी उसके साथ खिलवाड़ कर सकता है....उनकी परवाह करने के लिए ना शासन है,ना कानून,ना भगवान.....डॉक्टर को भगवान का ओहदा देने वाले लोग अब सोचने पर मजबूर हैं कि अब उन्हें क्या कहा जाए.....सोचिये अगर यही घटना अगर किसी ऊंचे ओहदे वालों के साथ होती तो भी क्या कार्यवाई का स्वरूप यही होता...ये घटनाएं एक साथ कई बातों पर सवालिया निशान लगाती हैं...डॉक्टरी के पेशे पर...शासन के रवैये पर और कानून की कार्यवाई पर....पर ये सवाल हल कौन करेगा ये अपने आप में एक सवाल है...?

सोमवार, 13 सितंबर 2010

अमर प्रेम


आप सोच रहें होगें ये तो फिल्म का नाम है तो मैंने अपने ब्लाग के शीर्षक में क्यूं ले लिया..यही तो लिखना है मुझे आज तो शीर्षक भी यहीहोगा...कल ये फिल्म टीवी पर आ रही थी तो  मैं देखने पर विवश हो गई...बहुत दिनों बाद बहुत अच्छी फिल्म आ रही थी ..फिल्मों का जन्म लोगों के मनोरंजन के लिए हुआ होगा तभी तो लोग बड़ी फुर्सत केसमय देखते हैं पर कुछ फिल्में शायद जीवन की बड़ी गहरी बातों को बड़ी आसानी से लोगों से कह जाती हैं और जीवन के सही मायने बता जाती हैं हां ये बात और है कि लोग कितनी गंभीरता से उसे लेते हैं या महज मनोरंजन कर भुला देते हैं...पर मुझे हमेशा से यही लगता रहा कि फिल्म जीवन का,समाज का आइना होती है उसमें हमें वही देखते हैं जैसे हम हैं इसीलिए तो हर कोई अपने हिसाब की कहें या अपने पसंद की फिल्में देखता है....अमरप्रेम एक ऐसी फिल्म जिसमें हर पात्र जीवन के आदर्श को जीता है...मन की गहराई से उठती संवेदना को जीता है...हर भाव अपने आप में मुक्कमिल...शायद वहां उससे बेहतर किरदार और कलाकार नहीं हो सकता था...प्रेम का परिष्कृत रूप जो अब विरले ही देखने को मिलता है...कौन भला आज के समय में अपने जीवन की खुशी केवल आदर्श निभाने के लिए किसी को देता है....कोइ बचपन में मिले किसी अजनबी के थोड़े से प्यार का कर्ज उतारने  एक अजनबी को अपनी मां का दर्जा देता है..यहां तो लोग अपनी मां को ही घर से बेघर कर देते हैं....किसी से किया वादा लोग जीवन भर तो दूर एक दिन भी नहीं निभाते ऐसे में ये फिल्म देखकर लगता है हम किसी कल्पना की दुनिया में पहुंच गये हैं...पर ऐसा नहीं है आज भी कुछ लोग हैं जो जीवन के आदर्शों के लिए दुख को गले लगाना पसंद करते हैं..ना कि खुशी को हर शर्त पर पाने को लालायित रहते हैं.. ये फिल्म शायद आज के परिप्रेक्ष्य में हमें अजीब लग रहीं हैं क्योंकि अब जीवन के मायने बदल गये हैं, लोगों की जीवन के प्रति सोच बदल गई है...पर आज भी सबको अपने लिए शायद ऐसी ही रिश्तों की गहराई पसंद है....

बुधवार, 8 सितंबर 2010

वो बहुत ख़ूबसूरत है...




बहुत दिनों से मन में ढ़ेर सारी बातें उमड़-घुमड़ रही थी...कितनी सारी घटनाएं आंखों के सामने से होकर मन को उद्वेलित कर निकल गईं... सोचा उन्हें पिरो दूं शब्दों में...पर वही तकिया कलाम मैं भी अपनाकर शायद खुद से बचने की कोशिश की...'वक्त नहीं मिल पाया', काम बहुत था, घर में मेहमान आ गए...पर मैं ये भी जानती हूं कि आप दूसरों से अपनी व्यस्तता की कहानी कहकर काम से बच सकते हैं पर खुद को कहां से जवाब देंगे...पर आज मेरे बहानेबाज़ मन को बहाना बनाने के लिए कोई बहाना नहीं मिला और मैं उतर आई शब्दों की दुनियां में... हर दिन की तरह आज भी जब मैं घर से निकली तो सामने नीले आसमान पर कुदरत की बहुत ही सुंदर चित्रकारी देखकर मन खुश हो गया...पर वही रास्ते..वही भीड़ देखकर...सोच रही थी इतने सारे लोग रोज सफर कर कहां जाते हैं... लगता है जीवन को चलाना ही सबका उद्देश्य है और मुझे लगता है कि ज्यादातर लोगों को ये पता ही नहीं होता कि वे क्यों जिए जा रहें हैं...क्या उद्देश्य है जीवन का ...क्या पाना है और कहां जाना है..कितना कुछ पाना चाहता है हर इंसान शोहरत, पैसा, सुख-सुविधा और न जाने क्या-क्या ख्वाहिशें लेकर दिन की शुरुआत करता है...फिर दिन ढ़लते ही एक थकान भरी उदासी के साथ लौट आता है अपने आशियाने में...इतनी सारी ख्वाहिशों में लोग शायद उसे भूल जाते हैं जो उसके दामन में है... उस खुशी को महसूस करना छोड़ उसकी आस में भटकता रहता है जो या तो उसे मिल नहीं सकता या जो उसकी पहुंच में नहीं है...सड़क पर चलते हुए अक्सर मैनें लोगों को केवल भागते हुए देखा है.... किसी को भी रास्ते पर राहगीर की तरह नहीं देखा...जो रास्ते की खूबियों को कमियों को ..मौसम के रंग को ...हवाओं की छुअन को और आकाश में बादलों की बनती मिटती तस्वीर को पल भर देखकर खुश हुआ हो...पता नहीं जिस कुदरत की छांव में हम रहते हैं उसे देखने का एक पल का भी वक्त क्यों नहीं निकाल पाते...सोचती हूं खुश होने के लिए कितना कुछ है इस जहां में... किसी की मधुर आवाज में सुनाई देता एक प्यारा सा गीत... क्या दिन भर के लिए हमें ऊर्जा से नहीं भर सकता...बादलों में निकलता छुपता चांद क्या अपने आप मुस्कुराने पर विवश नहीं करता... क्या ठंडी हवा की छुअन जीवन के स्पंदन को बढ़ा नहीं देती....इतना कुछ है थोड़ा नजर तो उठाइए ..अपने अंदर महसूस तो करिए ये दुनियां, ये जीवन एक बार ही मिलता है....क्यूं इसे यूं ही बेखयाली में जिए जाते हैं ...