मंगलवार, 27 जुलाई 2010

कहां है मंज़िल

हर सुबह आती है अपने साथ न जाने कितने अरमान लेकर...दिन से रात तक के इस सफर को पूरा जी लेने की चाहत लेकर हम भी जाग जाते हैं ...दिन चलता है.. सूरज चढ़ता है...और उसी के साथ हम भी चल पड़ते अपनी ज़िंदगी के जोड़-तोड़ करने को....इस दुनिया में न जाने कितने लोग हैं उनके उतने ही सपने हैं सभी अपने सपने को पूरा करने की  ओर एक कदम बढ़ा देते हैं इस एक दिन में....पर इस सफर में चलते वक्त किसी के पास वक्त नहीं होता राह में चल रहे हमकदम लोगों के बारे में सोचने के लिए...क्योंकि किसी ने लिखा है कि गिरते हुए को उठाने में लगे तो समझे आगे बढ़ने से चूक जायेंगे...फिर भला कोई पीछे क्यूं होना चाहेगा किसी अजनबी के लिए यहां तो लोग आगे बढ़ने के लिए अपनों को गिरा के आगे बढ़ने से नहीं चूकते....पर इस भी़ड़ में आज भी कुछ लोग सही मायनें में इंसान हैं..उनमें दर्द के प्रति दर्द है.....प्रकृति के लिए प्यार है....ठंडी हवा उन्हें खुश करती है....बादल पर चांद की खूबसूरती देख के गदगद होते हैं..सड़क पर बच्चों को मिट्टी में खेलता देख के अपना बचपन याद करते हैं...किसी के प्रति निस्वार्थ प्रेम में सदियों जिए जाते हैं.....पर  ऐसे लोगों को आज के समय में पिछड़ा माना जाता है....आज लोगो के आगे बढ़ने की परिभाषा बदल गई ..मापदंड़ बदल गए हैं...तो उनकी मंज़िल भी बदल गई है या कहें मंज़िल है ही नहीं.....मैं खुश रह पाती हूं क्योंकि आज भी मेरी मंजिल औऱ उसके रास्ते मुझे पता है ...वरना अब तो लोगों को न मंजिल का पता है ना रास्तों का....पर एक वक्त देखना फिर आयेगा जब लोगों को सच्चाई के सुख पता चलेगा और उन्हें भी अपनी मंज़िल और उसके रास्ते दिखने लगेंगे........