शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

कायाकल्प

कायाकल्प के साथ ही जुड़ा है कुछ नएपन का अहसास इसीलिए शायद छोटा सा भी बदलाव हमें अच्छा लगता है फिर वो किसी भौतिक चीजों का हो या इंसान का....मैंने भी कायाकल्प किया है अपने ब्लॉग का.. सुंदर हरियाली और पेड़-पौधों से घिरे जंगल के बीच रखकर बहुत ही अच्छा लगा...कितने दिनों से मैनें अपने ब्लॉग में कुछ नहीं लिखा...जैसे दुनिया ने मुझसे वक्त छीन लिया हो...या कहूं वक्त होते हुए भी अपने विचारों की उलझन में इतनी खो सी गई हूं लगता है सबसे दूर हो गई...शायद मुझे भी जरूरत है कायाकल्प की या कहूं अब मेरा भी कायाकल्प हो गया है ..कुछ बदला सा महसूस करके सोचती हूं कि ऐसा क्यों हो गया...सोचती पहले भी थी पर उस सोच में संवेदना हावी हो जाती थी.....पर अब लगता है जैसे सारे रिश्तों की कलई उधड़ चुकी है सबका असली चेहरा दिखाई देता है.. तो वितृष्णा होने लगती है फिर सवाल और सवाल और सवाल में उलझ जाती हूं...काम का भी असर पड़ता है जिंदगी में...खबरों के बीच काम करके अब हर बात की सच्चाई दिखाई देती है लोगों के जीने का तरीका लोगों की सोच और तो और रिश्तों को पल-पल बदलते देखकर मैं अपने आपको उस बीच बहुत अकेला सा पाती हूं...आपस में जब किसी विषय पर लोगों से चर्चा होती है तो लोगों के बीच अक्सर कुछ शब्दों का ज्यादा प्रयोग होते देखती हूं तो मैं उनका अर्थ तलाशनें लगती हूं...लोग अक्सर कहते है डिप्लोमैटिक होना सीखिए...प्रेक्टिल बनिए...लाइफ को एंजॉय कीजिए...छोटी-छोटी उम्र में ही लोग कितने परिपक्व हो गए हैं सारी दुनियादारी आ गई है....पर मैं तो इन शब्दों का अर्थ जिंदगी में लगा नहीं पाती और सोचती हूं क्या डिप्लोमेटिक होने से ही सफलता मिलती है, क्या लोगों को अब बनावटी आवरण में लिपटी चीजें ही सुंदर लगती हैं....क्या भीतर से अच्छा होना अयोग्यता हो चुकी है...ये कैसा डिप्लोमैटिक होना हुआ...तभी तो खुशी भी डिप्लोमैटिक मिलती है तो लोग तनावग्रस्त हो जाते हैं...भई जो आप देंगे वही तो मिलेगा ना...सच्ची खुशी तो मन से आएगी और डिप्लोमैटिक होंगे तो मन कहां बचेगा...बात करें प्रेक्टिकल की मैं तो साहित्य की विद्यार्थी हूं मेरे लिए प्रेक्टिकल का मतलब कांच के जार में लैब में होने वाला प्रेक्टिकल...पर ना ना यहां तो अर्थ होता है रिश्तों में प्रेक्टिकल करना...अब बताइए ये कहां से सीखें दुनिया से,....मैट्रो सिटी से या बॉलीवुड से...जहां प्रेम सांसों की गति की रफ्तार से बदलता है ...आज एक से तो कल दूसरे से....मैं कुछ सोच पाऊं तब तक किसी तीसरे से...संवेदना लगाव की बात करें तो पता चलता है प्रेक्टिकल होने का अर्थ...अरे भई किसी के लिए इंसान जीना थोड़ी ही छोड़ता है प्रेक्टिकल बनिए ? पर मैने तो उन लोगों को देखा है, पढ़ा है जो समर्पण की पराकाष्ठा हैं जिन्होंने अपना जीवन मन की शांति के लिए और रिश्तों को निभाने में निकाल दिया...पर अब शायद शांति और खुशी के मायने ही बदल गए हैं ? तभी तो ये शब्द हल्ला मचा रहें हैं और हमारे जैसी सोच वाले लोग आउटडेटेड कहलाते हैं....बस इन्हीं बातों में उलझी मैं कुछ दिनों से मौन हो चुकी थी पर मुझे मालूम है कोई कितना भी डिप्लोमैटिक, प्रेक्टिकल हो या लाइफ को एक पल में एंनजॉय करने वाला हो उसे भी एक वक्त के बाद वही चाहिए जो सच है-सच्ची खुशी,ईमानदार साथी और तकलीफों में साथ देने वाला दोस्त...जो शायद उन्हें कभी नहीं मिल सकता।