मंगलवार, 15 जून 2010

कानून मांगे कानून

अक्सर जब हम घर से बाहर होते हैं हमारी दुनिया केवल खुद तक सिमट जाती है....खास कर तब जब हम फुरसत के लम्हों में केवल अपनी ज़िंदगी को जीने निकलते हैं.....पर उस समय भी अगर अपनी नजरों को कुछ देर के लिए आस-पास घुमा दें तो पता चलता है कि हमारे आस-पास कितना कुछ घट रहा है जो हमें सोचने को मजबूर करता है बहुत कुछ....ऐसा ही कुछ मैने देखा जब हम बाहर थे...हमारी ट्रेन की टिकिट जो एसी की थी औऱ आरएसी थी..जब हम स्टेशन पहुंचे तो पता चला कि टिकिट कन्फर्म नही हुई थी..टीटीआई से बात करने पर पता चला कि सीट तो मिलेगी पर उसके लिए मोटी रकम देनी होगी चूंकि गर्मी बहुत थी हमने पैसे दे दिए.....और मैं गुस्से में बैठ गई ....ट्रेन इन बातों से बेखबर दौड़ रही थी रफ्तार से...उसे इससे क्या.....पर मेरे अंदर धधक रहा थी टीटीआई की बातें....कुछ देर बाद गाड़ी रूकी और कुछ कॉलेज के बच्चे उस ट्रेन में चढ़ गए...फिर क्या था वही टीटीआई कानून और नियमों की क्लास लेने पहुंच गया....कानून की बड़ी-बड़ी बातें बता कर उन बच्चों को इस बदतमीजी से डांटा की उसके दोहरे व्यवहार ने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि शायद अब कानून को भी कानून की बैसाखी की जरूरत है....कुछ नही हो सकता इस देश का....जहां लोग पल-पल कानून को खिलौना बनाकर खेलते हैं .....ना संवेदना है..ना इंसानियत बची है फिर क्या और किससे उम्मीद करें....जीवन के सफर की कुछ बातें कभी मुकाम में नही पहुंच पाती...वो अनवरत चलती रहती हैं जहन में यादें बन कर........  

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